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धर्म का सार और इसका उद्देश्य

इस अनुच्छेद में मैं तीन मुद्दों को हल करना चाहूँगा:

(क) धर्म का सार क्या है?

(ख) कि इसका सार इस संसार में प्राप्त होता है या आगामी संसार में?

(ग) कि इसका उद्देश्य सृजनकर्ता को लाभ पहुँचाना है या जीवों को?

 

पहली नज़र में,पाठक को मेरे शब्दों से आश्‍चर्य हो सकता है,और वह इन तीन प्रश्‍नों को समझ नहीं पाएगा जो मैने इस निबंध के विषय के रूप में अपने समक्ष रखे हैं।किसके लिए हैं यह जो जानता नहीं कि धर्म है क्या,और विशेषकर इसके पुरस्कार और दंड,जो भाग्य में लिखे हैं कि मुख्यत मरनोपरांत जीवन में आएगें?और हमें तीसरे मुद्दे का उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं,क्योंकि हर कोई जानता है कि यह जीवों को लाभ पहुँचाने के लिए हैं और उन्हें प्रसन्‍नता और आनंद की ओर निर्देश करने के लिए भी,और इसमें हम कुछ और क्या जोड़ सकते हैं?

कुछ और जोड़ने के लिए मेरे पास,वास्तव में,कुछ भी नहीं है।क्योंकि बालपन से ही वह इन तीन अवधारणाओं के साथ इतने परिचित हो जाते हैं इसलिए वह अपने बाकी के जीवन में वह इनमें कुछ नहीं जोड़ते और इनकी आगे जांच भी नहीं करते।और यह उच्च मामलों में उनके ज्ञान के अभाव को दर्शाता है।उच्च मामले अनिवार्यता बिल्कुल वही नींव हैं जिन पर धर्म की सम्पूर्ण संरचना आधारित है।

इसलिए मुझे अवश्य बताएँ,यह कैसे सम्भव है,कि बारह या तेरह साल का एक बच्चा,जो पहले से ही इन सूक्ष्म धारणाओं को पूरी तरह से समझ सकता है,और पर्याप्त ढंग से,उसे क्या अपने बाकी के जीवन में इन मामलों में कुछ और आगे अवधारणाएँ और ज्ञान जोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं होगी?

दर‍असल,यही तो समस्या है! कि यह जल्दबाज़ी के अनुमान अपने साथ हमारे संसार में और हमारी पीढ़ी में समस्त लापरवाही और निराधार निष्कर्ष लेकर आए हैं!और यह हमें उस अवस्था तक ले आए हैं जहाँ दूसरी पीढ़ी लगभग पूरी तरह से हमारे हाथों के नीचे से निकल गई है।

n पूर्ण भलाई।

पाठकों को लम्बी चर्चाओं की थकान से बचाते,मैने उन सब पर आश्रय किया है जो मैने पुर्व निबंधों मे लिखा था विशेषकर,"मतन तोहरा"(तोहरा की देन) के निबंध में,और वह सभी निबंध आगे के उच्च विषय के लिए प्रस्तावना जैसे हैं।यहाँ पर मैं संक्षेप में और सरलता से बात करूँगा,ताकि इसे सबके लिए समझने योग्य बनाया जा सके।

सबसे पहले,हमें सृजनकर्ता को समझना चाहिए-वह पुर्ण भलाई है।इसका मतलब है कि यह सरासर असंभव है कि वह किसी व्यक्‍ति को कभी भी कोई दु:ख देगा। और इसे हम पहली अवधारणा मानते हैं,कि हमारी सामान्य बुद्धि स्पष्‍ट तरीके से दर्शाती है कि संसार में किसी भी बुरे कार्यकलाप का आधार केवल प्राप्त करने की इच्छा से उत्पन्‍न होता है।

इसका मतलब है कि अपने आप को लाभ पहुँचाने की उत्सुकता,आत्म संतुष्‍टि को प्राप्त करने की हमारी इच्छा के कारण, हमारे अपने साथियों को हम ही से नुक्सान पहुँचाती है।इस प्रकार यदि किसी को अपने हित में कोई संतुष्‍टि ना मिलती तो कोई भी कभी भी दूसरे व्यक्‍ति का नुकसान ना करता।और यदि कभी-कभी हम किसी व्यक्‍ति को दूसरे को क्षति पहुँचाते पाते,बिना किसी आत्म संतुष्‍टि प्राप्त करने की इच्छा से,वह ऐसा केवल एक पुरानी आदत की वजह से करता।यह पुरानी आदत उसकी प्राप्ति की इच्छा में से उत्पन्‍न हुई और जो इस प्राप्ति की इच्छा से पीछा छुड़ाने की ज़रुरत में एक नए कारण को ढूँढती है।

और क्योंकि हम जान चुके हैं कि सृजनकर्ता अपने आप में और अपने आप से संपूर्ण है और पूर्णता के लिए उसे किसी व्यक्‍ति की सहायता की आवश्यकता नहीं,क्योंकि वह सबसे अग्रगण्य है,यह,अत: स्पष्‍ट करता है कि उसे कोई प्राप्ति की इच्छा नहीं है।वह मौलिक रूप से किसी को नुक्सान पहुँचाने की इच्छा से विहीन है;यह इतना सरल है।

इसके इलावा,इसे पहली अवधारणा मानने के लिए हमारी बुद्धि पूरी तरह से सहमत है,कि वह दूसरों पर-मतलब अपने जीवों पर भलाई करने की इच्छा रखता है।और ज़ाहिर तौर पर यह महान सृष्‍टि द्‍वारा भी स्पष्‍ट है जिसकी उसने उत्पति की और हमारी आँखों के सामने रख दी।कि इस संसार में प्राणी हैं जो आवश्यक रूप से चाहे एक अच्छी या फिर एक बुरी अनुभूति का अनुभव करते हैं,और यह भी कि यह अनुभुति अनिवार्यता उन्हें सृजनकर्ता की ओर से आती है।और एक बार जब यह निश्‍इचत रूप से स्पष्‍ट है कि सृजनकर्ता की प्रकृति में कोई नुक्सान पहुँचाने का उद्देश्य नहीं है,यह अनिवार्य हो जाता है कि जीव उससे केवल भलाई प्राप्त करें,क्योंकि उसने इनकी उत्पति केवल उन पर प्रदान करने के लिए की है।

इस प्रकार हम जान जाते हैं कि उसे केवल भलाई प्रदान करने की इच्छा है,और यह सरासर नामुमकिन है कि उसके प्रभाव क्षेत्र में कोई भी हानिप्रदता हो,जो उसकी ओर से आती हो।अंतत:,हमने उसे,"पूर्ण भलाई"जैसे परिभाषित किया है।और इसे जान लेने के बाद,चलो एक नज़र डालें वास्तविक हकीकत पर जो उससे निर्देशित होती है,और कैसे वह उन पर भलाई करता है।

n उसका मार्गदर्शन विशेष मार्गदर्शन है।

प्रकृति की प्रणालियों का निरीक्षण कर हम यह समझते हैं कि इन चार वर्गों-अचल,वानस्पतिक,चेतन और बोलने वाले-में कोई भी जीव,अखंड रूप से और विशेषकर,उद्देश्यपूर्ण मार्गदर्शन में पाया जाता है,इसका तात्पर्य यह है कि कारण और प्रभाव से एक धीमा और क्रमिक विकास,जैसे कि एक वृष पर एक फल,जो अनुकूल मार्गदर्शन द्‍वारा संचालित किया जाता है ताकि अंतत: एक मीठा व सुन्दर फल बन जाए।

जाओ और एक वनस्पति वैज्ञानी से पूछो कि फल के दृश्य होने के समय से लेकर उसके पूरी तरह से पक जाने तक वह कितने चरणों से गुज़रता है।ना केवल इसके पूर्यवर्ती चरण इसके मीठे व सुन्दर अंत का कोई सबूत देते हैं,परन्तु,जैसे कि दु:ख देना हो, यह तो बल्कि इसके अंतिम परिणाम का विपरीत दर्शाते हैं।

फल जितना भी अंतत: मीठा होता है,अपने विकास के पुर्यवर्ती चरणों में उससे अधिक कड़वा और भद्दा दिखता है।और ऐसे ही चेतन और बोलने वाले जीवों के साथ है:कि एक पशु,जीवन के अंत तक जिसकी बुद्धि कम रहती है,अपने विकास के दौरान इतना इच्छुक नहीं होता।जबकि मनुष्‍य जीवन के अंत तक जिसकी बुद्धि महान हो जाती है,विकास के दौरान बहुत इच्छुक है।"एक दिन के बछ्ड़े को बैल कहते हैं",अथार्त्‌,उसके पास अपने पैरों पर खड़े होने व चलने की शक्‍ति और अपने मार्ग में खतरों से बचने की बुद्धि होती है।

परन्तु एक दिन का शिशु प्रकटत: निहित है। और एक व्यक्‍ति जो इस संसार के आचरणों से परिचित ना हो यदि इन दो नवजात शिशुओं का निरिक्षण करे,यद्यपि उसे एक बछ्ड़े की तुलना में एक बेहूदा और नासमझ बच्चे को आँकना हो,वह निश्‍इचत रूप से यह निष्‍कर्ष निकालेगा कि मानव शिशु नाचीज़ के बराबर होगा जबकि बछड़ा एक महान नायक बन सकता है।

इस प्रकार,यह स्पष्‍ट है कि वास्तविकता जिसकी उसने उत्पति की है,पर उसका मार्गदर्शन एक उद्देश्यपूर्ण मार्गदर्शन के रूप में है,बिना विकास के चरणों के क्रम को ध्यान में रखते,क्योंकि अपने अंतिम रूप से सदैव विपरीत दिखाई देते यह हमें झांसा देते हैं और उनके उद्देश्य को समझने से हमें रोकते हैं।

ऐसे विषयों के बारे में हम कहते हैं कि,"इतना बुद्धिमान कोई भी नहीं जितना कि एक अनुभवी"।केवल वह व्यक्‍ति,जो अनुभवी है, उसके पास सृष्‍टि के समस्त विकास के क्रमों को, पूर्णता तक, जांच करने का अवसर है,और वह ही वस्तुओं को शांत कर सकता है,ताकि वह उन बिगड़ी प्रतिमाओं से ना डर जाए जिनमें से सृष्‍टि अपने विकास के चरणों दौरान गुज़रती है,परन्तु इसके उत्तम और अमल अंत में विश्‍वास रखे।

इस प्रकार,हमने अपने संसार में उसके विधान के संचालन को पूर्ण रूप से दर्शा दिया है,जो केवल एक उद्देश्यपूर्ण मार्गदर्शन है।सृष्‍टि की अपनी पूर्णता-इसकी अंतिम परिपक्वता-से पूर्व भलाई की विशेषता बिल्कुल भी स्पष्‍ट नहीं है।इसके विपरीत, यह बल्कि प्रेक्षकों की आँखों में हमेशा भ्रष्‍टाचार का रूप लेती है।इस प्रकार आप देखते हैं कि सृजनकर्ता अपने जीवों पर केवल भलाई प्रदान करता है,परन्तु यह भलाई उद्देश्यपूर्ण मार्गदर्शन द्‍वारा आती है।

n दो मार्ग:एक पीड़ा का मार्ग और एक तोहरा का मार्ग।

हमने स्पष्‍ट कर दिया है कि परमात्मा पूर्णतया भलाई है,और यह कि वह हमें पूर्ण परोपकार में,बिना किसी बुराई के संकेत के और उद्देश्यपूर्ण मार्गदर्शन करता,हमारा ध्यान रखता है। इसका मतलब है कि उसका मार्गदर्शन हमें चरणों की एक श्रृंखला को झेलने के लिए विवश करता है,कारण और प्रभाव द्‍वारा, पूर्ववर्ती और परिणामी,जब तक कि हम वांछित भलाई को प्राप्त करने के योग्य ना हो जांए।और तब,एक परिपक्व और उत्तम दिखने वाले फल की तरह,हम अपने उद्देश्य पर पहुँच जांएगे। और हम समझते हैं कि यह उद्देश्य हमारे सब के लिए गारण्टीशुदा है,वरना आप उसके विधान को दोष देते,यह कहते कि यह अपने उद्देश्य के लिए अपर्याप्त है।

हमारे ज्ञानियों ने कहा,"निम्नों में देवत्य-एक उच्च आवश्यकता"।इसका मतलब यह कि क्योंकि उसका मार्गदर्शन उद्देश्यपूर्ण है और अंतत: यह उसके साथ आसंजन करने का लक्ष्य रखता है,इसलिए यह आवश्यकता हमारे भीतर रहती होगी,यह एक उच्च आवश्यकता मानी जाती है।तात्पर्य यह कि यद्मपि हम इस उच्च आवश्यकता को नहीं मानेगें,तो उसके विधान से संबंधित हम अपने आप को दोषपूर्ण पाएगें।

यह वैसा है कि एक महान राजा,जिसे बुढ़ापे में एक बेटा हुआ और वह राजा को बहुत प्रिय था।अत:,जिस दिन से वह पैदा हुआ राजा उसके लिए केवल अच्छी चीज़ों के बारे में सोचता था।उसने राज्य में सबसे बेहतरीन,बुद्धिमान और अनमोल पुस्तकें एकत्र कीं और उसके लिए एक स्कूल का निर्माण करवाया।उसने उत्तम निर्माणकर्ताओं को बुलवाया और आनन्द के महल बनवाए।सभी संगीतकारों और गायकों को इक्ट्‍ठा किया और उसके लिए संगीत गोष्‍ठी महाकक्ष बनवाए,और सबसे बढ़िया नानबाईओं और प्रधान रसोइओं को बुलवाया ताकि संसार के सभी स्वादिष्‍ट व्यंजन उसे उपलब्ध हों।

लेकिन हाय,बेटा बड़ा होकर मूर्ख निकला जिसे शिक्षा प्राप्त करने की कोई इच्छा ना थी।और वह अंधा था,इमारतों की खूबसूरती को देख व महसूस नहीं कर सकता था।और वह बहरा था,कविताओं और संगीत को सुनने में असमर्थ।और वह बीमार था,केवल मोटे आटे की रोटी खाने की उसे अनुमति थी और इससे तिरस्कार और क्रोध उत्पन्‍न हुआ।

लेकिन,ऐसी घटना एक मांस और खून से बने राजा के साथ हो सकती है,परन्तु सृजनकर्ता के बारे में ऐसा कहना सम्भव ही नहीं है,जहाँ कोई भी छ्ल नहीं हो सकता।इसलिए उसने हमारे लिए विकास के दो मार्ग तैयार किए हैं:

पहला है पीड़ा का मार्ग,यह सृष्‍टि के विकास का संचालन उसके अपने भीतर से है।सृष्‍टि अपनी ही प्रकृति से कारण और प्रभाव का मार्ग अनुसरण करने के लिए विवश है,जो भिन्‍न भिन्‍न अवस्थाओं में लगातार हमारा धीरे-धीरे विकास करता है,जब तक कि हम अच्छे का चयन और बुरे को अस्वीकार करने के संकल्प तक नहीं पहुँच जाते,और उस उद्देश्य के लिए योग्य नहीं हो जाते जो सृजनकर्ता की इच्छा है।

और यह मार्ग वास्तव में लम्बा और दर्दनाक है। इसलिए उसने हमारे लिए एक सुखद और सौम्य मार्ग तैयार किया है,जो तोरहा और मितज़्वोत का मार्ग है,जो कि बिना कष्‍ट के और शीघ्रता से हमें हमारे उद्देश्य के योग्य बना सकता है।

ऐसा लगता है कि हमारा अंतिम लक्ष्य उसके साथ आसंजन है-हमारा भीतर उसके निवास करने के लिए योग्य बनना।यह लक्ष्य एक निश्‍इचता है और इस मार्ग से हटने का कोई तरीका नहीं है,क्योंकि इन दोनों मार्गों में उसका मार्गदर्शन हमारा पर्यवेक्षण करता है,यह दो मार्ग हैं-पीड़ा का मार्ग और तोरहा का मार्ग।परन्तु वास्तविक हकीकत को देखते हुए,हम पाते हैं कि दोनों मार्गों में उसका मार्गदर्शन एक साथ होता है, जिसका उल्लेख हमारे ज्ञानी इस प्रकार करते हैं,"धरती का तरीका" और,"तोहरा का तरीका"

n धर्म का सार हमारे भीतर बुराई को पहचानने की योग्यता का विकास करने का है।

हमारे ज्ञानी कहते हैं,"सृजनकर्ता बुरा क्यों मानेगा कि व्यक्‍ति गले पर मारता है या गर्दन के पीछे से?आख़िरकार,मितज़्वोत केवल लोगों को शुद्ध करने के लिए दिए गए थे"।"मतन तोरहा"(आइटम २)में इस शुद्धता को पूरी तरह से स्पष्‍ट किया है,लेकिन यहाँ पर मैं उस विश्‍वास के सार को स्पष्‍ट करना चाहूँगा जो तोरहा और मितज़्वोत के माध्यम से प्राप्त होता है।

याद रखो,यह हमारे भीतर बुराई की पहचान है।यह कि मितज़्वोत में व्यस्तता धीरे-धीरे और क्रमश उनको शुद्ध कर सकता है जो मितज़्वोत का गहन शोध करते हैं।और एक पैमाना जिसके द्‍वारा हम शुद्धता के अंशों को मापते हैं,वह है हमारे भीतर बुराई की पहचान।

मनुष्‍य स्वाभाविक रूप से अपने भीतर से किसी भी बुराई को दूर भगाने व जड़ से नष्‍ट करने के लिए तैयार है।इसमें सभी लोग एक समान हैं।परन्तु एक व्यक्‍ति और दूसरे में अंतर केवल बुराई की पहचान करने में है।एक अत्यधिक विकसित व्यक्‍ति बुराई को अपने भीतर ज़्यादा मात्रा में पहचानता है,और इसलिए और अधिक हद तक भीतर से बुराई को दूर भगाता व अलग करता है।दूसरी ओर एक अविकसित व्यक्‍ति थोड़ी मात्रा में बुराई को अपने भीतर अनुभव करता है,और इसलिए वह थोड़ी मात्रा में बुराई को दूर भगाएगा।परिणामस्वरूप,वह अपनी सारी गंदगी अपने भीतर छोड़ देता है,क्योंकि वह इसे गंदगी के रूप में पहचानता ही नहीं है।

पाठक को थकान से बचाते,हम अच्छे और बुरे के सामान्य अर्थ को स्पष्‍ट करेंगे,जैसे इसकी व्याख्या,"मतन तोरहा"(आइटम १२) में की गई है।बुराई,सामान्य रूप में,आत्म प्रेम से अधिक कुछ भी नहीं है,जिसे अंहकार कहते हैं और यह सृजनकर्ता के स्वरूप से विपरीत है,सृजनकर्ता को अपने लिए प्राप्त करने की कोई इच्छा नहीं,पर इच्छा केवल प्रदान करने के लिए है।

जैसे हमने,"मतन तोरहा"(आइटम ९,११) में व्याख्या की है कि आनन्‍द और औदात्य निर्माता के साथ स्वरूप की समानता की तुलना में मापे जाते हैं,और पीड़ा और असहनशीलता निर्माता के साथ स्वरूप की असमानता की तुलना में मापे जाते हैं।इस प्रकार अंहकार घृणित है और हमें पीड़ा देता है,इसलिए क्योंकि इसका स्वरूप निर्माता के विपरीत है।

लेकिन यह घृणिता सभी आत्माओं में समान रूप से विभाजित नहीं है,पर भिन्‍न भिन्‍न मात्राओं में यह प्रदान की गई है।एक अशोधित अविकसित व्यक्‍ति अंहकार को एक बुरा गुण नहीं मानता और खुलेआम बिना शर्म और संयम के इसका प्रयोग करता है।वह दिन दहाड़े जहाँ भी उसे मौका मिले चोरी और हत्या करता है।इससे कुछ थोड़ा अधिक विकसित व्यक्‍ति अपने अहंकार को कुछ मात्रा में बुरा महसूस करते हैं,वह कम से कम सार्वजनिक रूप से खुलेआम चोरी करने या मारने में इसका इस्तेमाल करने पर शर्मिन्दा हैं। परन्तु गोपनीयता में यह अपने अपने अपराध फिर भी करते हैं।

इससे और भी अधिक विकसित व्यक्‍ति,जब अंहकार को भीतर बर्दाश्त ना कर सकता हो और इसे पूरी तरह से अस्वीकार करे,जितना भी वह इसका पता लगा सके तब तक जब तक और पता ना लगा पाए,और जब वह दूसरों के परिश्रम का आनन्‍द नहीं उठाना चाहता हो,तब ही वह अंहमन्यता को वास्तव में एक घृणास्पद बात महसूस करता है। तब उनमें दूसरों के लिए प्रेम की चिंगारियाँ प्रकट होनी शुरु हो जाती हैं जिसे परार्थवाद कहते हैं जो कि अच्छाई की सामान्य विशेषता है।

और वह भी,धीरे धीरे क्रमिक रुप से विकसित होता है।सबसे पहले,व्यक्‍ति का अपने परिवार व संबंधियों पर प्रेम और इच्छा प्रदान करना विकसित होता है जैसे कि पद्म में लिखा है,"अपने आप को अपने निकट सम्बंधि से ना छिपा"।फिर आगे और विकासशील होते,व्यक्‍ति का प्रदानता का गुण उसके आस-पास सभी व्यक्‍तियों में बढ़ता है,चाहे अपने शहर के लोगों में या अपने राष्‍ट्र में,और तब तक व्यक्‍ति अनुवृद्धि करता है,जब तक कि अंतत: वह सम्पूर्ण मानवता के लिए प्रेम को विकसित ना कर ले।

n सचेतन विकास और अचेतन विकास।

याद रखो,वह दो शक्‍तियाँ उपर्युक्त सीढ़ी के सोपानों पर हमें अग्रसर करने का कार्य करती हैं,जब तक कि हम आकाश में सीढ़ी के सिरे तक नहीं पहुँच जाते,जो हमारे निर्माता के साथ स्वरूप की समानता का उद्देश्यपुर्ण बिन्दु है। और इन दो शक्‍तियों के बीच अंतर यह है कि पहली हमें पीछे से धकेलती है,जिसे हम ऐसे परिभाषित करते हैं,"पीड़ा का मार्ग" या,"धरती का तरीका"।

इस मार्ग से नैतिकता की धारणा उपजती है जिसे,"नितीशास्त्र" कहते हैं जो व्यावहारिक कारणों के परीक्षण द्‍वारा एक अनुभवजन्य ज्ञान पर आधारित है,जिसका सार प्रत्यक्ष क्षतियों का एक जोड़ है,जो अंहकार के अणुओं का परिणाम है।

यह परीक्षण हमारे सचेत चयन के परीणामस्वरूप नहीं हैं और यह हमारे समक्ष संयोगवश आते हैं,लेकिन यह अपने लक्ष्य की ओर हमारा नेतृत्व करने के लिए निश्‍इचत हैं,क्योंकि हमारी इंद्रियाँ बुराई की छवियों को सदैव स्पष्‍ट करती रहती हैं। और जिस हद तक भी हम इसकी क्षतियों को पहचानते हैं,हम अपने आप को इससे दूर कर लेते हैं और फिर सीढ़ी के एक उच्च सोपान पर चढ़ जाते हैं।

दूसरी शक्‍ति हमें सतर्कता से अथार्त्‌ हमारी अपनी इच्छा से धकेलती है। यह शक्‍ति हमें आगे से खींचती है, और वह है जिसे,"तोहरा और मितज़्वोत का मार्ग" जैसे परिभाषित करते हैं।अपने निर्माता को संतुष्‍इट लाने के लिए,तोहरा और मितज़्वोत का अनुपालन करते,यह शक्‍ति तेज़ी से बुराई को पहचानने की भावना को विकसित करती है,जिसे हमने,"मतन तोहरा"(आइटम १३) में दर्शाया है।

और यहाँ हमें दुगना हित होता है।

(क) हम जीवन की कठिन परीक्षाओं का इंतज़ार पीछे से धकेले जाने से नहीं करते,जिनकी उकसाने की मात्रा केवल यंत्रणा और विनाशों की मात्रा से मापी जाती है।इसके विपरीत,सूक्ष्म सौम्यता के माध्यम से हम महसूस करते हैं कि जब हम सृजनकर्ता के लिए सच्चाई से और उसे प्रसन्‍न करने के लिए काम करते हैं, तब हमारे भीतर आत्म-प्रेम की चिंगारियों की शालीनता की एक सापेक्ष पहचान विकसित हो जाती है-सृजनकर्ता पर प्रदानता के उस सूक्ष्म स्वाद को प्राप्त करने में यह आत्म-प्रेम की चिंगारियाँ हमारे मार्ग में रूकावटें हैं। इस प्रकार,सृजनकर्ता की सेवा करते अच्छाई की प्राप्ति द्‍वारा,प्रसन्‍नता और महान प्रशांति के समय में हमारी माधुर्य और सौम्यता की भावना,जो हमें निर्माता के साथ स्वरूप की समानता से प्राप्त हुई,हमारे भीतर क्रमिक रूप से धीर धीरे बुराई की पहचान का बोध कराती है।

(ख) हम समय की बचत करते हैं।क्योंकि सृजनकर्ता हमें,"आलोकित करने" का कार्य करता है,इस प्रकार अपने काम को आगे बढ़ाने व समय जल्दी करने में हमें सक्षम कर और वैसे ही जैसा हम चाहते हैं।

n धर्म लोगों के हित में नहीं,पर एक कामगार की भलाई के लिए है।

बहुत से लोग गलत समझते हैं और हमारे पवित्र तोहरा की तुलना नैतिकता से करते हैं।पर वह इसलिए ऐसा समझते हैं क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में धर्म को कभी चखा ही नहीं है।मै उन्हें निमंत्रित करता हूँ,"स्वाद चखो और जानो कि ईश्‍वर भला है"। यह सही है कि नैतिकता और धर्म दोनों एक बात का लक्ष्य करते हैं-मनुष्‍य को संकीर्ण आत्म-प्रेम की गंदगी से ऊपर उठाना और उसे दूसरों-के-प्रति-प्रेम की ऊँचाईओं तक लाना।

लेकिन फिर भी वह एक दूसरे से ऐसे सुदूर हैं जैसे सृजनकर्ता के विचार और लोगों के विचार के बीच में फासला।इसलिए क्योंकि धर्म सृजनकर्ता के विचारों से प्रचलित होता है,और नैतिकता खून व मांस के विचारों से और अपने जीवन के अनुभवों से प्राप्त होती है।अत: इनके व्यावहारिक पहलुओं में और अंतिम लक्ष्य में,दोनों के बीच में स्पष्‍ट अंतर है।इसलिए क्योंकि नैतिकता द्‍वारा हमारे भीतर जो अच्छे और बुरे की पहचान विकसित होती है,जैसे हम इसका प्रयोग करते हैं,यह पहचान समाज की सफलता के सापेक्ष है।

धर्म द्‍वारा,तथापि,हम में जो अच्छे और बुरे की पहचान विकसित होती है,जैसे हम इसका उपयोग करते हैं,यह पहचान केवल सृजनकर्ता के सापेक्ष है,अथार्त्‌, निर्माता के साथ स्वरूप की असमानता से लेकर उसके साथ स्वरूप की समानता तक,जिसे,"द्वेकूत"(आसंजन) कहते हैं,जैसे,"मतन तोहरा"(आइटम ९-११)में स्पष्‍ट किया गया है।

और लक्ष्य के विषय में वह एक दूसरे से पूरी तरह से परे भी कर दिए जाते हैं।क्योंकि नैतिकता का लक्ष्य,जीवन के अनुभवों से प्राप्‍त और व्यावहारिक कारणों के परिपेक्ष्य से,समाज की भलाई है।परन्तु अन्त में,यह लक्ष्य अपने अनुयायी को प्रकृति की सीमाओं के ऊपर कोई भी प्रफुल्लता का वादा नहीं करता है।इसलिए,यह लक्ष्य अभी भी आलोचना का विषय है,कि एक व्यक्‍ति को उसके लाभ की हद कौन साबित कर सकता है,इस तरीके से कि समाज की भलाई के वास्ते वह बस थोड़ा सा अपना अहम्‌ का त्याग करने के लिए मजबूर हो जाए?

धार्मिक लक्ष्य,तथापि,उस व्यक्‍ति के कल्याण का वादा करता है जो इसका अनुसरण करता है,जैसे कि हमने पहले दर्शाया है कि जब एक व्यक्‍ति दूसरों को प्रेम करता है,वह प्रत्यक्ष द्वेकूत में होता है,जो कि निर्माता के साथ स्वरूप की समानता है,और इसके साथ मनुष्य अपने संकीर्ण संसार,जो दर्द और बाधाओं से भरा है,को पार कर ईश्‍वर और लोगों पर प्रदानता के एक अनन्त संसार में आता है।

आपको समर्थन के विषय में भी एक महत्वपूर्ण अंतर मिल जाएगा।क्योंकि नैतिकता का पालन करना लोगों के अनुमोदन द्‍वारा समर्थित है,इसलिए यह एक भाड़े की तरह है जो अंत: लाभ देता ही है।और जब मनुष्य इस कार्य का आदि हो जाता है,वह नैतिकता के स्तरों से ऊपर उठ नहीं पाएगा,क्योंकि अब इच्छा उस काम के लिए प्रयोग की जाती है जो समाज द्‍वारा अच्छी तरह से पुरस्कृत है,अथार्त्‌ उसके अच्छे कर्मों का भुगतान है।

फिर भी,तोहरा और मितज़्वोत के अवलोकन द्‍वारा अपने निर्माता को प्रसन्‍न करने के लिए,बिना किसी पुरस्कार के,वह नैतिकता के सोपानों पर चढ़ जाता है,ठीक उस हद तक जितनी वह इसके लिए कोशिश करता है,क्योंकि उसके मार्ग पर कोई भुगतान नहीं है। और हर एक सिक्‍का एक महान खाते में जोड़ा जाता है।और अंतत: वह एक अभ्यासलब्ध स्वभाव प्राप्त कर लेता है,जो कि बिना किसी आत्म-संतुष्‍टि के दूसरों पर प्रदानता है,केवल उसके जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं को छोड़कर।

अब सृष्‍टि के बन्दीकरणों से वह वस्तुत: मुक्‍त हो गया है।क्योंकि जब व्यक्‍ति किसी भी आत्म-संतुष्‍टि से घृणा करता है और उसकी आत्मा छोटे से भी भौतिक सुख व सम्मान से नफरत करती है,वह अपने आप को सृजनकर्ता के संसार में आज़ाद घूमता पाता है।और उसे गारंटी है कि कोई हानि और दुर्भाग्य उस पर नहीं आएगा,क्योंकि सब क्षतियाँ एक मनुष्य पर केवल उसमें अंकित आत्म-प्राप्ति से आती हैं।

इस प्रकार हमने पूर्ण रूप से दर्शाया है कि धर्म का उद्देश्य केवल उस व्यक्‍ति के लिए है जो इसमें संलग्न होता है,और आम लोगों के उपयोग व लाभ के लिए कदापि नहीं,हालांकि इसकी सभी क्रियाएं लोगों के हित में चारों ओर परिक्रमा करती हैं और इन कृत्यों द्‍वारा मापी जाती हैं।पर यह है किंतु एक उत्कृष्‍ट लक्ष्य का पथ,जो निर्माता के साथ स्वरूप की समानता है।अब हम समझ सकते हैं कि धर्म का उद्देश्य इस संसार में रहते प्राप्त होता है।और,"मतन तोहरा" में समष्‍टि के और एक व्यक्‍ति के उद्देश्य की ध्यानपूर्वक जांच करो।