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कार्यकारी मन

प्रत्येक व्यक्‍ति अपनी आत्मा के मूल को प्राप्‍त करने के लिए बाध्या है।इसका मतलब है कि अभिलाषी-निर्मित प्राणियों का उद्‍देश्य उसके गुणों के साथ द्ववेकूत(आसंजन) है,"जैसे कि वह दयालु है,आदि"।उसके गुण पवित्र सफीरौट हैं,और यह कार्यकारी मन है जो उसके संसार का मार्गदर्शन करता है और इसके द्‍वारा उन पर उसका परोपकार और बहुतायत निर्धारित करता है।

लेकिन हमें अवश्य समझना चाहिए कि इसे."सृजनकर्ता के साथ द्ववेकूत"क्यों कहते हैं जबकि यह मात्र अध्ययन लगता है।मै इसकी एक रूपक कथा में व्याख्या करूंगा:संसार के प्रत्येक कार्य में,उसके संचालक का मन उस कार्य में ठहर जाता है।एक मेज़ में,एक व्यक्‍ति एक बढ़ई के शिल्प की दक्षता और कुशलता,चाहे महान्‌ या थोड़ी,प्राप्‍त कर सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि काम करते,उसने मेज़ को अपने मन के हिसाब से बनाया,अपने मन के गुणों के हिसाब से।और जो इस अधिनियम को देखता है और इस कार्य के दौरान मेज़ में अंकित मन को समझता है,वह उस मन के साथ जुड़ जाता है जिसने उस मेज़ को बनाया,यह कि,वे वास्तव में एकजुट हो जाते हैं।

ऐसा इसलिए क्योंकि वास्तव में,आध्यात्मिकों के बीच कोई दूरी और विराम नहीं होता,यहाँ तक कि जब वे अलग अलग शरीरों में होते हैं।लेकिन उनके भीतर मन को अलग नहीं किया जा सकता,क्योंकि कौन सा चाकू आध्यात्मिक को काट सकता है और इसे विभाजित रहने दे सकता है?बल्कि,आध्यात्मिकों के बीच मुख्य अंतर उनके गुणों में है-प्रशंसनीय या दोषी-और संरचना में भी,क्योंकि एक मन जो ज्योतिष की गणना करता है दूसरे मन के साथ लगाव नहीं करेगा जो प्राकृतिक विज्ञानों का चिंतन करता है।

और यहाँ तक कि समान अध्यापन में भी बहुत विविधता है,क्योंकि यदि एक व्यक्‍ति दूसरे से एक तत्व में भी अधिक हो जाता है ,यह आध्यात्मिकों को एक दूसरे से अलग कर देता है।परन्तु जब दो ज्ञानी समान चिंतन का अध्ययन करते हैं,और समान बुद्धिमता की मात्रा धारण करते हैं,वे वास्तव में एकजुट होते हैं,क्योंकि उन्हें क्या अलग कर सकता है।

इसलिए,जब एक व्यक्‍ति दूसरे व्यक्‍ति की क्रिया का चिंतन करता है,और उस ज्ञानी के मन की प्राप्‍ति करता है जिसने उस क्रिया को किया हो,उनके मन और शक्‍ति एक समान हैं।इसलिए,अब वे पूरी तरह से एकजुट हैं,जैसे कि एक व्यक्‍ति जो अपने प्रिय मित्र को सड़क पर मिला,वह उसे गले लगाता है व चूमता है,और उनकी निरी एकात्मकता के लिए ,उन्हें अलग नहीं किया जा सकता।

अत:,इस बात में,नियम यह है कि,सृजनकर्ता और उसके जीवों के बीच मन सबसे अच्छा समायोजित बल है।यह माध्यम माना जाता है,मतलब उसने इस बल की एक चिंगारी प्रदान की,और इस चिंगारी से सब कुछ उसी को वापिस लौट जाता है।और यह लिखा है,"बुद्धिमता में आपने उन सब को बनाया है"मतलब कि उसने अपनी बुद्धिमता से सारे संसार की उत्पति की।इसलिए,एक व्यक्‍ति जो तरीकों को प्राप्त करने, जिनसे उसने इस संसार की और इसके संचालक की उत्पति की, से पुरस्कृत है,वह उस मन से जुड़ा है जिसने उन्हें प्रदर्शन किया।अत: वह सृजनकर्ता से जुड़ा है।

सृजनकर्ता के सभी नामों का होना,जो जीवों के हैं,यह तोहरा का मतलब है।और अपनी योग्यता के द्‍वारा,जीव उस मन को प्राप्त कर लेता है जो सभी क्रियाओं को करता है।यह इसलिए क्योंकि सृजनकर्ता तोहरा में देख रहा था जब उसने संसार को बनाया,और उद्धोधन द्‍वारा जो व्यक्‍ति सृष्‍टि द्‍वारा प्राप्त करता है और उस मन के साथ सदैव जुड़े रहते जिसने उन्हें प्रदर्शन किया,व्यक्‍ति सृजनकर्ता के साथ जुड़ा रहता है।

अब हमने समझा कि क्यों सृजनकर्ता ने अपनी शिल्प कौश्ल के उपकरण हमें दिखाए।कि क्या हमें संसारों को बनाने की आवश्यकता है?लेकिन उपर्युक्त से,हम समझते हैं कि सृजनकर्ता ने हमें अपने संचालन दिखाए हैं ताकि हम जान सके कि कैसे उसके साथ जुड़ना है,और यह,"उसके गुणों को मानना" का अर्थ है।