हमारे संत जो लिख चुके थे,पवित्र ज़ौहार उनकी व्याख्या करती है,"तीन चीज़े व्यक्ति के मन का विस्तार करती हैं।वे हैं,एक सुन्दर औरत,एक सुन्दर आवास और सुन्दर क्लिम(पात्र)"।यह कहती हैं,"एक सुन्दर औरत,यह पवित्र शकीना(दिव्यता) है।एक सुन्दर आवास,यह व्यक्ति का हृदय है;और सुन्दर क्लिम,ये व्यक्ति के अंग हैं।"
हमें यह व्याख्या करनी चाहिए कि सुन्दर क्लिम-जो अंग हैं,हृदय से निकलवाए जाते हैं,जब ये व्यक्ति के पास हों-को छोड़कर, पवित्र शकीना अपने वास्तविक रूप में प्रगट नहीं हो सकती।पवित्र शकीना मनोहरता व सुन्दरता की एक अवस्था है।
इसका मतलब कि एक सुन्दर आवास के लिए व्यक्ति को सबसे पहले अपना हृदय पवित्र करना चाहिए,अपने लिए प्राप्ति की इच्छा को रद्द कर और काम प्रति स्वयं को अभ्यस्त बना कर,जहाँ व्यक्ति के सभी कर्म केवल प्रदान करने के लिए हों।
इस हद तक,सुन्दर क्लिम, मतलब कि व्यक्ति की इच्छाएँ,जिन्हें क्लिम कहते हैं,अपने लिए प्राप्ति से अप्रयुक्त होगीं।बल्कि वे शुद्ध होगीं-प्रदानता जैसे विवेकशील।
हालांकि,यदि आवास सुन्दर नहीं है,सृजनकर्ता कहते हैं,"वह और मैं एक ही घर में नहीं रह सकते"।यह इसलिए क्योंकि प्रकाश और क्लि(पात्र)में रूप की समानता होनी चाहिए।इसलिए जब व्यक्ति अपने आप पवित्रता में विश्वास करता है,मन व हृदय दोनों से,व्यक्ति को एक सुन्दर औरत प्रदान की जाती है,मतलब कि पवित्र शकीना का उसे मनोहरता व सुन्दरता के रूप में अनुभव होता है और यह व्यक्ति के मन का विस्तार करती है।
दूसरे शब्दों में,व्यक्ति जो आनंद व प्रसन्नता का अनुभव करता है,यह अंगों के भीतर पवित्र शकीना का प्रकट होना है,बाहरी व आंतरिक क्लिम को भरते हुए।इसे,"मन का विस्तार होना" कहते हैं।
ईर्ष्या,वासना और सम्मान के माध्यम से इसकी प्राप्ति है,जो व्यक्ति को संसार से बाहर लाती है।ईर्ष्या का अर्थ है पवित्र शकीना में ईर्ष्या के माध्यम से,"मेज़बानों के परमात्मा का उत्साह"जैसे उत्साह को मानना।सम्मान का मतलब है व्यक्ति स्वर्ग के गौरव को बढ़ाना चाहता है,और वासना है,"आपने विनम्र की इच्छा को सुन लिया है"।