BNEI BARUCH WORLD CENTER FOR KABBALAH STUDIES

मैं क्यों कुछ अध्यात्मिक की तलाश कर रहा हूँ?

मैं क्यों अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी, जो वह प्रदान कर रही है, से कुछ ज़्यादा या अलग चाहता हूँ? कबला इस प्रश्‍न को ऐसे वाक्यांश करता है: उच्च शक्‍ति के लिए इच्छा कैसे उभरती है?

मानवता कई जीवन पर्यन्तों से विकसित हुई है; सबसे पहले पशुओं के समान और केवल भोजन, परिवार, यौन और आश्रय की इच्छाओं के साथ; फिर धन, नियंत्रण, प्रतिष्‍ठा और ज्ञान के चरणों मे विकसित होती हुई।

विकास के पहले चरण में-व्यक्‍ति की इच्छाएँ केवल भोजन, परिवार, यौन और आश्रय के लिए हैं। यहाँ तक कि पूरी तरह से अलग व अकेले रहने वाले व्यक्‍ति की भी यही इच्छाएँ हैं और वह इन्‍हें पूरा करने का प्रयत्‍न करता है। इच्छाएँ जो समाज के प्रभाव द्‍वारा( जैसे धन, नियंत्रण और प्रतिष्‍ठा की इच्छाएँ)प्रशिक्षित होती हैं,वह अगले चरण में उभरती हैं।

इसके पश्‍चात्‌, ज्ञान की इच्छा प्रकट होती है। विज्ञान समृद्ध हुए जैसे ही हम अपने मूल को ढूँढने लगे और खोजना आरम्भ किया कि सब कुछ कहाँ से आया है। ज्ञान की इच्छा,फिर भी, केवल हमारी दुनिया के दायरे में बनी हुई है।

केवल अगले चरण में ही मनुष्य वास्तविक स्रोत,अपने सार-जीवन के अर्थ, को जानने की इच्छा करता है।" मैं कहाँ से आया हूँ?" "मैं कौन हूँ?" "मैं क्या हूँ?", यह प्रश्‍न व्यक्‍ति को अशांत और परेशान करते हैं।

स्वाभाविक रूप से मनुष्य स्वार्थी होते हैं। हमारी सभी इच्छाएँ अहम्‌-प्रेरित और पूर्ति की लालसा करती हैं। वह हम पर दबाव डालती हैं,वस्तुत:हमारे हर कदम को नियंत्रित करती हुईं। अहं की चरम सीमा, हमारे संसार में, अपने से परे उच्च ज्ञान से परिपूर्ण होने की इच्छा है।

इच्छाओं का स्रोत क्या है और यह कैसे प्रकट होती हैं? इच्छाओं का स्रोत पीड़ा है। एक प्रकार की इच्छा को छोड़ कर दूसरी इच्छा करनी केवल पीड़ा के प्रभाव से होती है। यदि मैं एक संतुलित अवस्था में हूँ, तो मैं सहज अनुभव करता हूँ और सब कुछ बिल्कुल ठीक है। तब एक नई इच्छा उभरती है, और मैं महसूस करता हूँ कि कहीं कोई कमी है। अब मैं कुछ नया अनुभव करना चाहता हूँ, सो मैं इस नई इच्छा को पूरा करने का प्रयत्‍न आरम्भ कर देता हूँ.....और यह प्रक्रिया खुद को दोहराती रहती है। दूसरे शब्दों में, मैं सदैव नवीन आंनदों के पीछे दौड़ता रहता हूँ।

हमने इस ग्रह पर जन्म लिया है। अपनी अनगिनत इच्छाओं को संतुष्‍ट करने के प्रयास में हम जीते हैं और फिर मर जाते हैं। केवल कई जन्मों के बाद हम उस अवस्था तक पहुँचते हैं जब केवल एक ही इच्छा रह जाती है: अपने स्रोत-अपने जीवन के अर्थ, को प्राप्‍त करने की इच्छा। एक बार जब यह अंतिम और परम इच्छा प्रकट हो जाती है,बाकी सब कुछ अनावश्यक और अर्थहीन लगता है। व्यक्‍ति अवसाद-ग्रस्त हो जाता है, वह जीवन में भावात्मक और अध्यात्मिक खालीपन अनुभव करता है, मानो इस संसार में कुछ भी नहीं जो खुशी लेकर आ सके। जीवन निरर्थक और उसमें कुछ वास्तविक अभाव लगता है....."मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है?" "मैं क्यों जीवित हूँ?"। यही प्रश्‍न हैं जो लोगों को कबला में लाते हैं।